ADMIN 05:30:00 AM 01 Jan, 1970

एक लेख छपा था मेरा भी, अखबारों में कुछ दिन पहले।

जिसमें मैंने हिन्द लिखा था, और लिखा था शहरों को,
जिसमे मैंने रात लिखी था, और लिखा दोपहरों को।

लेख में मैंने लिखा था उस पर, लिखा था मैंने चरखा भी,
गांधी, नेहरु, आज़ादी भी, और लगाया तड़का भी।

कुछ कटाक्ष थे, कुछ बातें थी, लिखी लेख में दो ढाई,
पर शायद मैं भूल गया था, लिखना उसमे सच्चाई।

झूठ लिखा था, बिका बहुत, पसंद सभी को आया भी,
झूठ जो था, तो आना ही था, सत्य नहीं, छप पाया था।

लेख स्वयं में उलझा उलझा, पहुँचा फिर दीवारों तक,
चिपका कुछ बाजारों में वो, चला वो ठेकेदारों तक।

कुछ दिन तक तो दिखा मुझे, पर फिर गायब हुआ कहाँ,
लेख ने मेरे आग लगायी, अब तक है कुछ धुंआ यहाँ।

चंद दिनों से दिखा नहीं है, मुझको वो बाज़ारों में,
लेख मेरा सबने पढ़ डाला, और खरीदा सारों ने।

झूठ था तो चल गया, सच होता तो सुनता कौन,
सच लिख देता, गर भारत का, उसको पढना चुनता कौन।

सच कहने में डरने वाले, सच पढने से डरते हैं,
अपना क्या है, लिख देते हैं, और झूठ पढ़ लेते हैं।

बेच रहा है मीडिया, झूठ को आवाम में,
देख रहा है इंडिया, झूठ को आराम से।

और बैठा कुर्सी पर है, चरखा चालने वाला,
घुमा रहा है, घूम रहा है, चाय उबालने वाला।

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