ADMIN 05:30:00 AM 01 Jan, 1970

वक़्त की डोर से फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के ज़ीने से दिसम्बर उतर रहा है |
फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।

कुछ चेहरे घटे , चंद यादे जुड़ीं गए वक़्त में,
उम्र का पंछी नित दूर और दूर उड़ रहा है |
फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।

गुनगुनी धूप और ठिठुरी रातें जाड़ों की,
गुज़रे लम्हों पर झीना-झीना पर्दा गिर रहा है।
फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।

मिट्टी का जिस्म एक दिन मिट्टी में मिलेगा ,
मिट्टी का पुतला किस बात पर अकड़ रहा है |
फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।

ज़ायक़ा लिया नहीं और फिसल रही ज़िन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त बादल सा उड़ रहा है |
फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।
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