उन नादानियों के दौर से यूँ हम भी गुज़रे थे,
अब क्या बताये आपको कि कैसे बिखरे थे,
शिकवे शिकायत रूठना रोज़ की बात रही,
जो गिनाये ना जा सकेंगे उनके ऐसे नख़रे थे,
रातों की नींद छोड़िये गंवाया चैन दिन का,
ये जाना नही था हमने इसमें कितने ख़तरे थे,
जब ख़तम हुआ दर्द भरा वो दौर उल्फ़त का,
आँख में आंसुओं के बस कतरे ही कतरे थे,
यूँ रोये बहुत बाद में घर के कोनों में बैठ कर,
मेरे दिल में उनकी याद के सब कमरे भरे थे.
