Afsar 12:00:00 AM 13 Jun, 2017

फिर उसके जाते ही
दिल सुनसान हो कर रह गया;

अच्छा भला इक
शहर वीरान हो कर रह गया;

हर नक्श बतल हो गया
अब के दयार-ए-हिज्र में;

इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की
पहचान हो कर रह गया;

रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें
हिसार-ए-बाम-ओ-दर;

यह शहर फिर मेरे लिए
ज़ान्दान हो कर रह गया;

कुछ दिन मुझे आवाज़ दी
लोगों ने उस के नाम से;

फिर शहर भर में वो
मेरी पहचान हो कर रह गया;

इक ख्वाब हो कर रह गई
गुलशन से अपनी निस्बतें;

दिल रेज़ा रेज़ा कांच का
गुलदान हो कर रह गया;

ख्वाहिश तो थी "साजिद"
मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की;

लेकिन फ़क़त मैं साहिब-
ए-दीवान हो कर रह गया।

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