आख़िर-ए-शब वो तेरी अँगड़ाई,
कहकशाँ भी फलक पे शरमाई;
आप ने जब तवज्जोह फ़रमाई,
गुलशन-ए-ज़ीस्त में बहार आई;
दास्ताँ जब भी अपनी दोहराई,
ग़म ने की है बड़ी पज़ीराई;
सजदा-रेज़ी को कैसे तर्क करूँ,
है यही वजह-ए-इज़्ज़त-अफ़ज़ाई;
तुम ने अपना नियाज़-मंद कहा,
आज मेरी मुराद बर आई;
आप फ़रमाइए कहाँ जाऊँ,
आप के दर से है शनासाई;
उस की तक़दीर में है वस्ल की शब,
जिस ने बर्दाश्त की है तन्हाई;
रात पहलू में आप थे बे-शक,
रात मुझ को भी ख़ूब नींद आई;
मैं हूँ यूँ इस्म-ब-मुसम्मा 'अज़ीज़',
वारिश-ए-पाक का हूँ शैदाई।
