arman 12:00:00 AM 15 Jun, 2017

इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए;
उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए;

चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर;
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए;

सब देख कर गुज़र गए एक पल में और हम;
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए;

मुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजात;
ऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गए;

किस किस से और जाने मोहब्बत जताते हम;
अच्छा हुआ कि बाल ये चाँदी के हो गए;

इतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थी;
शायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गए;

इख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे;
'अज़हर' तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए।

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