फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था;
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था;
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू;
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था;
रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही;
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था;
ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़;
वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था;
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम';
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।
