शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत,
मर्सिये ने दिल को मेरे भी रुलाया है बहुत;
दी-ओ-कोहसर में रोता हूँ दहाड़े मार-मार,
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत;
नहीं होता किसी से दिल गिरिफ़्ता इश्क़ का,
ज़ाहिरा ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत!
