Afsar 12:00:00 AM 19 Jun, 2017

होने को आई शाम,
इन गहराए बादलो में,

तन को लगी शीतल बहार,
तलब हुई मयखानों की।

सोचा मंगा लूँ मदिरा,
करूँ यहीं बैठकर पान,

फिर सोचा चलूँ मयखाने,
करने साकी तेरा दीदार।

किया साकी दीदार तेरा,
चढ़ गई मुझको हाला,

चढ़ी हाला मुझको ऐसी,
नही जग ने सम्भाला।

हुई भोर चढ़ा सूरज,
दिन कब ढल गया,

फिर हुआ वही साकी,
जो पिछली शाम हुआ।

चला मै उसी राह,
जिस राह पर मयखाना था,

पर आज तू नहीं,
यहाँ तो मद्द का प्याला था।

हो आई तलब आज
फिर से साकी तेरी,

इस जग से रुसवा हो जाऊँ,
या फिर तु हो जा मेरी।

आज फिर तुमने मुझे
बताया कि मै कौन हूँ,

वरना मै तो केवल तुम्हारे
भीतर ही समाया था।

हम वो नही साकी,
जो बेकद्र-ऐ-मोहब्बत हो,

हम वो है साकी,
जो शजर-ऐ-मोहब्बत हो।

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