बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा,
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा;
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश,
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा;
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं,
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा;
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली,
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा;
किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर,
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा।
