Afsar 12:00:00 AM 15 Jul, 2017

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा,
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा;

इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश,
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा;

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं,
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा;

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली,
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा;

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर,
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा।

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