Afsar 12:00:00 AM 15 Jul, 2017

हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा,
वो देखो दूर कहीं आसमाँ पिघलने लगा;

तो क्या हुआ जो मयस्सर कोई लिबास नहीं,
पहन के धूप मैं अपने बदन पे चलने लगा;

मैं पिछली रात तो बेचैन हो गया इतना,
कि उस के बाद ये दिल ख़ुद-ब-ख़ुद बहलने लगा;

अजीब ख़्वाब थे शीशे की किर्चियों की तरह,
जब उन को देखा तो आँखों से ख़ूँ निकलने लगा;

बना के दाएरा यादें सिमट के बैठ गईं.
ब-वक़्त-ए-शाम जो दिल का अलाव जलने लगा।

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