कहाँ क़ातिल बदलते
हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
अजब अपना सफ़र है
फ़ासले भी साथ चलते हैं;
बहुत कमजर्फ़ था जो
महफ़िलों को कर गया वीराँ;
न पूछो हाले चाराँ
शाम को जब साए ढलते हैं;
वो जिसकी रोशनी कच्चे
घरों तक भी पहुँचती है;
न वो सूरज निकलता है,
न अपने दिन बदलते हैं;
कहाँ तक दोस्तों की
बेदिली का हम करें मातम;
चलो इस बार भी हम
ही सरे मक़तल निकलते हैं;
हम अहले दर्द ने ये राज़
आखिर पा लिया 'जालिब';
कि दीप ऊँचे मकानों में
हमारे खून से जलते हैं।
