Rakesh 12:00:00 AM 15 Jun, 2017

कहाँ क़ातिल बदलते
हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;

अजब अपना सफ़र है
फ़ासले भी साथ चलते हैं;

बहुत कमजर्फ़ था जो
महफ़िलों को कर गया वीराँ;

न पूछो हाले चाराँ
शाम को जब साए ढलते हैं;

वो जिसकी रोशनी कच्चे
घरों तक भी पहुँचती है;

न वो सूरज निकलता है,
न अपने दिन बदलते हैं;

कहाँ तक दोस्तों की
बेदिली का हम करें मातम;

चलो इस बार भी हम
ही सरे मक़तल निकलते हैं;

हम अहले दर्द ने ये राज़
आखिर पा लिया 'जालिब';

कि दीप ऊँचे मकानों में
हमारे खून से जलते हैं।

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