arman 12:00:00 AM 16 Jul, 2017

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं;

बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ;
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं;

वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है;
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं;

कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम;
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं;

हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब';
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।

Related to this Post: