arman 12:00:00 AM 15 Jun, 2017

मैंने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ;
ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ;

मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर;
उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ;

लेकर इक अज़्म उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ;
फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ;

जब तलक महवे-नज़र हूँ, मैं तमाशाई हूँ;
टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ;

मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर;
वह अगर मुझ को रचाले तो हमेशा हो जाऊँ;

आगही मेरा मरज़ भी है, मुदावा भी है 'साज़';
जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ।

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