arman 12:00:00 AM 16 Jun, 2017

फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था;
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था;

वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू;
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था;

रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही;
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था;

ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़;
वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था;

याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी'अदीम';
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।

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