आरजू की थी इक आशियाने की;
आंधियां चल पड़ी ज़माने की;
मेरे ग़म को कोई समझ ना पाया;
क्योंकि मुझे आदत थी मुस्कुराने की!
आरजू की थी इक आशियाने की;
आंधियां चल पड़ी ज़माने की;
मेरे ग़म को कोई समझ ना पाया;
क्योंकि मुझे आदत थी मुस्कुराने की!
