Afsar 12:00:00 AM 17 Jul, 2017

एक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाज़ा है बहुत;
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का धड़ाका है बहुत;

रात हो दिन हो गफलत हो कि बेदर्दी हो;
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत;

तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी;
कभी दरिया नहीं काफी, कभी क़तरा है बहुत;

मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह;
मैने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत।

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