एक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाज़ा है बहुत;
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का धड़ाका है बहुत;
रात हो दिन हो गफलत हो कि बेदर्दी हो;
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत;
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी;
कभी दरिया नहीं काफी, कभी क़तरा है बहुत;
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह;
मैने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत।
